यह कविता ‘नया ज्ञनोदय’ के सितंबर २००८ अंक में प्रकाशित हुई थी। लेकिन उस अंक की प्रति कहीं रख गई है और यह कविता खो सी गई थी। आज इसकी हस्तलिखित ड्राफ़्ट मुझे मिल गई जिसमें तारीख़ मई २००६ की लिखी हुई है। ड्राफ़्ट स्तर पर इसे मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी व विष्णु खरे साहब ने इस कविता को देखा था। यह कविता मेरे बहुत ही क़रीब है।
यहाँ ऐसे दुख की बात की गई है जो इतना प्रगाढ़ और चिरकालिक है किसी दूसरे के लिए उसके तह में जाना नामुमकिन है और उसके बारे में पूछ-ताछ करना या ताका-झाकी करना उस दुख की गरिमा को कम करता है और उसे ठेस भी पहुँचाता है।
हम चुपचाप उसके इर्द गिर्द घूम सकते हैं और कुछ सूक्ष्म तरीक़े से ही कुछ मदद करने की कोशिश कर सकते हैं। यह दुख उस प्राईवेट जोक (private joke) की तरह है जो सिरफ उन्हें समझ आएगा जो उस जोक के बनते हुए तात्कालिक क्षण में मौजूद थे क्योंकि उसकी कोई भी व्याख्या फूहड़ ही होगी।
हम चुपचाप उसके इर्द गिर्द घूम सकते हैं और कुछ सूक्ष्म तरीक़े से ही कुछ मदद करने की कोशिश कर सकते हैं। यह दुख उस प्राईवेट जोक (private joke) की तरह है जो सिरफ उन्हें समझ आएगा जो उस जोक के बनते हुए तात्कालिक क्षण में मौजूद थे क्योंकि उसकी कोई भी व्याख्या फूहड़ ही होगी।
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प्राईवेट जोक
किसी से उसके दुख के बारे में न पूछना
एक तरकीब अच्छी है
उसके दुख में शामिल होने की
घाव से मवाद निकालने की कला
बेहतर है
माहिर डॉक्टर या नर्स के लिए
छोड़ दी जाए
क्यों तुम अपनी ईजाद की हुई दवा
मरहम-पट्टी चाक़ू छुरी लेकर
उसके दुख को कुरेदना चाहते हो
अस्पताल के वार्ड बॉए रिसेपशनिस्ट
पोछा लगाती कामवाली को देखो
जो दुख के आसपास घूमते हीं रहते हैं
दुख से पूर्णत: विमुख
बिजली का मिस्तरी
मरीज़ के कमरे के पंखों को
ठीक करने आया हुआ है
और मरीज़ का हाल पूछे बग़ैर
उसके द्वारा चलाए पंखे की हवा ही
एक सुखद संपर्क सूत्र है
उसके और मरीज़ के बीच
मरीज़ से मिलो तो ज़रूर
पर उस वार्ड बॉए की तरह
जो मरीज़ को मशगूल रखता है
बीती शाम को हुई बेमौसम बारिश की बातचीत में
या राजनीतिक उठापटक की चीरफाड़ करने में
या फिर बारहवीं पास किए बच्चे के
किसी कोर्स में एडमिशन की चर्चाओं में
किसी से उसके दुख में न पूछना
एक तरकीब अच्छी है
उसके दुख में शामिल होने की
क्योंकि दुख तो उसका आँगन है
जहाँ हम-तुम चहलक़दमी करते
अच्छे नहीं दिखते
उसके दरवाज़े के बाहर
बरामदे में ही बैठकर
दूर से धीरे-धीरे
चाय की चुस्की लेते हुए
हमारा-तुम्हारा बार बार लौटना
उसके दुख की टीस को
कुछ कम कर सकता है
—कुमार विक्रम
मई २००६
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