इस प्रतिक्रियावादी समय में
कब हम सब उनकी ही तरह बोलने लगते है
इसका इल्म हो पाना भी लगभग मुश्किल है
ईंट का जबाब पत्थर से देने का सुरूर
आँख के बदले आँख की भावना
झूठ और सच के फाँक के बीच फंसकर रह जाना
बातों की पूँछ पकड़ कर गंगा पार कर जाना
कोरस का हिस्सा बनकर जीना
दरअसल धीरे धीरे काले बादल की तरह
हम सबको वो आगोश में लेने लगते हैं
कुछ वैसे ही जैसे
कोई मादक वस्तु उसका सेवन करने वालों के बीच
कोई फर्क नहीं करती है
और सबके सर चढ़ कर एक ही बोली बोलने लगती है
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