सच का डर
सच बोलने और डर का
कुछ अजीब ही रिश्ता है
सच बोलते बोलते
डर साथ साथ होता है
सच बोलने से पहले भी
डर ठीक पीछे ही खड़ा रहता है
जैसे बड़ी होती लड़की के पीछे
उसका बचपन छाये में खड़ा होता है
सच बोलने के बाद
डर पूरी तरह पीछा नहीं छोड़ता
वो अपने अस्तित्व को
और विदूप बनाने में लग जाता है
सचमुच यह विचारणीय है
कि सुकरात सरीखों को
सच बोलते और दुहराते हुए
ज़हर का घूँट पीते हुए
डर की अनुभूति हुई होगी
या नहीं?
इतिहास के पन्नों में
सुकरात-सरीखों पर लिखे गए
जीवनियों में
शायद ही इस मसले का
कोई हल हमें मिल पाये
क्योंकि उनमे सच बोलने का डर नहीं
बल्कि सच बोल चुके व्यक्ति की
विजय-गाथा होती है
उसका हल शायद वहीँ मिले
जहाँ कोई अभी किन्ही गुमनाम गलियों में
सच डरते डरते बोल रहा हो
कुमार विक्रम
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