चूँकि सरफरोशी की तमन्ना हर दिल-ए-क़ातिल में थी
सच भी झूठ से नए-नए नुस्खे सीख रहा था
बार-बार दुहराने पर अब वो झूठ में बदल जा रहा था
चलो, अँधेरे पर से सदियों का इल्ज़ाम हटा
अब षड़यंत्र रौशनी में ही तैयार हो रहा था
दौर-ए-इश्क़ था ही कुछ ऐसा
हर जा़लिम महबूब में बदला जा रहा था
अब भूखे पेट मरने में कोई शान नहीं बची थी
दंगाईयों के हत्थे चढ़ना ही नायाब नज़र आ रहा था
चूँकि सरफरोशी की तमन्ना हर दिल-ए-क़ातिल में थी
देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-मुल्क में है--बस यही भाव ज़ेहन में आ रहा था.
कुमार विक्रम